Thursday, 8 March 2018

               
रामगढ़ है जिसका नाम



रामगढ़ है उसका नाम !
दादा- दादी रहा करते थे जहाँ  ,
छुट्टियों में हम भी जाया करते थे वहां
गर्मियों की झुलसती आलसी  धुपहरि में
खा मिस्सी रोटी, दही के साथ
गटकते ठंडी लस्सी का इक बड़ा गिलास
और सो जाते दादी के चौबारे में,
बचपन की बेफिक्री का ओढ़े लिहाफ
उस भले ज़माने में
एक  छोटा सा गांव था मेरा, रामगढ़  है नाम.

खुली खिड़कियों से, हवा से होड़ लगाए
चहचहाती चिड़ियों की अंदर उड़ आती थी टोलीयां
खेतों खलियानो में सावन के गानो पे
झूमती मुटियारें, डाल के गिद्दे, बोलियां
खुशबू आती रिश्तों के प्यार की, अपनों के दुलार की
शाम होते, दादी, भटियारिन के यहाँ हमें ले कर जाती
ताज़े गर्म गर्म चने और मक्कई के दाने भुनवाती
बेरी बेर भेजती दादा के हाथ, न तोल मोल न दाम
छोटे से  उस गांव  में, रामगढ़  है जिसका नाम

बालटी पर लाल कपडा लपेट, कुल्फी वाला भी आया करता
पीपल के हरे हरे पत्तों पर, क्या ठंडी सफ़ेद कुल्फी
खुरच खुरच कर हमें खिलाता
उंगलियां चाटते, ठुडी तक  लार टपकाते
शाम से पहले थक कर, हम घर आ जाते
खाना खाते ,फिर छत पर बिस्तर बिछाते
डूबते सूरज को कर परनाम
बरामदे के लट्टू का बटन दबा कर,
दादी कहती वाहेगुरु सतनाम
पाखी घुमाती, कहानी सुनाती,ले जाती हमें परियों के धाम
उस छोटे से गांव से, रामगढ़  है जिसका  नाम.

सूरज की किरणे जब आँखें गुदगुदाती
दादी केतली में चाय लेकर, छत पर आती
चुस्की लगा खुद कप में पीती, फूक फूक प्लेट से हमें पिलाती
शुरू होता फिर एक और दिन का दौर
खाना ,खेलना, सोना, बस नहीं चाहिए था कुछ और
जाने का दिन नज़दीक जो आता जाता
बिना वजह हमें रोना आता, तब दादी बाज़ार ले जाती
कपडे, खिलौने  और माया राम की दुकान से बर्फी ,पेड़े हमें दिलाती
रेल में बैठ, हम बड़े शहर में, फिर धरते थे अपने पांव
छोड़ आते पीछे रामगढ़, छोटा सा वो मेरा गांव।

बड़े शहरों में पल बड़ कर, गए फिर बरसों के बाद
बड़ा बायपास निगल चुका था, सभी खेत और खल्यान
मेरे गांव का दिल चीरती, निकल गई इक सड़क  महान
कहीं होटेल , कहीं मॉल  और मल्टीप्लेक्स बने
माया राम की दुकान के यहाँ, इक फ़ूड कोर्ट था अब बना
फ़ास्ट फ़ूड के नाम पर जिसमे केमिकल्स का भंडार भरा
समुन्दर बन बह निकला आँखों से, पानी को मैं सकी न थाम
याद कर अपने उस गांव क़ो, रामगढ़  था जिसका नाम.

सतलुज दरिया का सूखा पानी, मर गई थी मछली सारी
फैक्टरियों के गृह प्रवेश पे, प्रसाद मिला था ज़हर भारी
बबूल काट काट सफेदा लगा था, उसे भी अब  काट गिराया
फोर वे लेन बनाने, जर्मनी से मशीने और मैनपावर भी था आया
बहरा हो गया आसमान, सुन सुन सैंकड़ो ट्रकों का शोर
बड़ी बड़ी इमारतें देखने देती, न चढ़ते सूरज को, न सुनहरी भोर
गीत सुनते फ़िल्मी, सुबह सवेरे, ऊँचे ऊँचे स्पीकरों से
न मंदिर से आवाज़ भजनों की, न आज़ान की मस्जित से
आँखें ढूंढे कोई अपना, मिला न कोई उनका निशान
न जाने कहाँ खो गया वो, रामगढ़  है जिसका नाम.

फेरी वाला अब जो आता, पॉपकॉर्न और चिप्स के पैकिट लाता
जिस में बंद बासीपन को, बूढ़ा जवान चटकारे लगाकर खाता
भटियारिन मरी , उजड़ी बेरियां , मोर भी  मर गए अब सारे
रातों को छत पर, ढूंढ़ते बच्चों को, भटकें  हैं चंदा मामा और सितारे
खिड़कियों में लगे ऐ सी, चिड़ियों को न अंदर आने देते
बंद कमरों में वीडियो गेम्स या टीवी, देखें बच्चे  लेटे लेटे
लड़के लड़कियां रात होते, सज सवर कर डिस्को जाते
मम्मी पापा जॉब से आएं, उसके बाद ही वह लौट के आते
दारू और नशों  में धुत, पहचाने न अपनी ही दलान
उसी राम के गांव में, जिसका रामगढ है बस नाम ही नाम.

दादा दादी की, अपने बचपन की,
जड़ें जुडी इस मिटटी में,
आना ही होगा बारम बार
घर तो मेरा यहीं रहेगा
चाहे घूम आऊं सारा संसार
यह शोर गुल और ताम झाम
चाहे बन गई इसकी पहचान
फिर भी, जब यादें देती दस्तक   
चल पड़ते  हैं इसकी ओर मेरे यह पांव
रामगढ जो अब बन गया शहर ,
फिर भी रहेगा मेरा गांव  ।
 Copyright @Dr. Sunil Kaushal26/02/2018





               




















 

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